माओवाद: एक समस्या या सरकार की नीतियों की असफलता?
माओवाद या नक्सलवाद भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए लंबे समय से एक बड़ी चुनौती रहा है। 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ यह आंदोलन माओ त्से-तुंग की विचारधारा से प्रेरित था, जो किसानों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए सशस्त्र संघर्ष की वकालत करता था। आज, दिसंबर 2025 में, स्थिति काफी बदल चुकी है। सरकार के आंकड़ों के अनुसार, नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 126 से घटकर मात्र 11-18 रह गई है, और 2026 तक इसे पूरी तरह समाप्त करने का लक्ष्य है। लेकिन सवाल यह है कि क्या माओवाद केवल एक 'समस्या' है, या यह सरकार की नीतियों की असफलता का परिणाम भी है?
माओवाद की जड़ें: सरकार की नीतियों की असफलता?
माओवाद का उदय कोई अचानक घटना नहीं थी। यह सामाजिक-आर्थिक असमानताओं का नतीजा था। आदिवासी क्षेत्रों में जल, जंगल और जमीन पर उनका अधिकार छीना गया। खनन परियोजनाओं और बड़े विकास प्रोजेक्ट्स ने लाखों आदिवासियों को विस्थापित किया, लेकिन पुनर्वास और लाभ उन्हें नहीं मिला। भूमि सुधार कानूनों का ठीक से क्रियान्वयन नहीं हुआ, जिससे जमींदारों और गैर-आदिवासियों का कब्जा बना रहा। गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी ने लोगों को अलग-थलग कर दिया।
सरकार की अनदेखी ने इन क्षेत्रों में वैक्यूम पैदा किया, जिसे माओवादियों ने भर लिया। वे जन अदालतें चलाते, न्यूनतम मजदूरी लागू कराते और स्थानीय विवाद सुलझाते थे। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि माओवाद राज्य की विफलता का प्रतीक है – जहां लोकतंत्र पहुंच नहीं पाया, वहां हिंसा ने जगह ले ली। यदि विकास योजनाएं ईमानदारी से लागू होतीं, तो शायद यह आंदोलन इतना बड़ा न होता।
माओवाद एक सुरक्षा समस्या के रूप में
दूसरी ओर, माओवाद ने खुद को एक गंभीर समस्या बना लिया है। दशकों की हिंसा में हजारों लोग मारे गए – नागरिक, सुरक्षाकर्मी और खुद माओवादी। वे स्कूल, अस्पताल और सड़कें बनाने के कामों को बाधित करते हैं, विकास को रोकते हैं। extortion, हथियारबंद हमले और IED विस्फोट उनकी रणनीति का हिस्सा रहे हैं। यह लोकतंत्र के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह है, जो संविधान को नहीं मानता।
2025 में यह आंदोलन अपने अंतिम चरण में है। इस साल सैकड़ों माओवादी मारे गए, हजारों ने आत्मसमर्पण किया। शीर्ष नेता जैसे बसवराजू और अन्य मुठभेड़ों में ढेर हो चुके हैं। प्रभावित क्षेत्र 'रेड कॉरिडोर' सिमटकर कुछ जिलों तक रह गया है। प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कहा है कि 31 मार्च 2026 तक भारत नक्सल-मुक्त होगा।
सरकार की वर्तमान नीति: सफलता की ओर?
मोदी सरकार की रणनीति बहुआयामी है – सुरक्षा अभियान (जैसे ऑपरेशन कगार), विकास कार्य (सड़कें, स्कूल, अस्पताल, मोबाइल टावर) और आत्मसमर्पण नीति। सरेंडर करने वालों को पुनर्वास और सुरक्षा दी जा रही है। यह दृष्टिकोण काम कर रहा है, क्योंकि हिंसा की घटनाएं तेजी से घटी हैं और माओवादी संगठन कमजोर पड़ रहा है।
निष्कर्ष: दोनों का मिश्रण, लेकिन समाधान विकास में
माओवाद मूल रूप से सरकार की नीतियों की असफलता से उपजा, लेकिन अब यह एक स्वतंत्र समस्या बन चुका है जो हिंसा से पनपती है। केवल बल प्रयोग से इसे खत्म नहीं किया जा सकता; जड़ों को समाप्त करना जरूरी है। यदि आदिवासी क्षेत्रों में समावेशी विकास, भूमि अधिकार और अच्छा शासन सुनिश्चित हो, तो विचारधारा खुद कमजोर पड़ जाएगी। 2025 के अंत में हम एक निर्णायक जीत के करीब हैं, लेकिन स्थायी शांति के लिए विकास और न्याय पर फोकस बनाए रखना होगा।
माओवाद हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र तभी मजबूत होता है, जब वह सबसे कमजोर वर्ग तक पहुंचे।
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